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श्रीरामचरितमानस में परम बलशाली और ज्ञानवान ” अंगद ” का चरित किसी से कमतर नहीं……

"सभा अचंभित सारी.... ऐसो नहीं देखो प्रनधारी...जाको रामभरोसो भारी .....बोले रामजी की जय .......

 आलोक पाठक
  ( रामायण विश्लेषक एवं विचारक  ) 

प्रभु श्री राम भक्त अंगद जी महाराज…….

@ALOK PATHAK

निर्मल भक्ति के साथ तत्व ज्ञान का अतुल भंडार है श्रीरामचरितमानस। गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित इस महाकाव्य में भगवान की लीला के साथ उनके भक्तों की ज्ञान, विवेक, बुद्धि, बल, निर्मलता और अहंकार शून्यता सहित अनेक गुणों का अनंत बखान है। गोस्वामी जी ने प्रभु के भक्तों को वर्गीकृत नहीं किया बल्कि भगवान के श्री मुख से उनकी प्रशंसा का उद्धरण किया है । श्री भरत जी महाराज, श्री हनुमान जी महाराज, श्री जामवंत जी महाराज, श्री सुग्रीव जी महाराज के साथ एक ऐसे भक्त की महिमा का वर्णन किया है जिसे भगवान की सबसे बड़ी कृपा अर्थात जानकी नाथ के कंठ की माला धारण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है,भगवान के भक्तों में यह सम्मान उनके अतिरिक्त और कोई नहीं पा सका ऐसे भक्त हैं श्री अंगद जी महाराज। श्रीरामचरितमानस में श्री हनुमान जी महाराज का अद्भुत वर्णन है और अंगद जी महाराज के विषय में वर्णन हनुमान जी महाराज की तरह ही मिलता है ।

श्री अंगद जी महाराज परम बलशाली और ज्ञानवान है वे भगवान शिव के परम भक्त, परम बलशाली और प्रतापी राजा बाली जिसे रावण भी नहीं पराजित कर सका, के पुत्र हैं । वह जीवन में कर्तव्य सीमा और बड़ों के आदर के लिए भी जाने जाते हैं । मानस में उनका उद्धरण भगवान श्री राम के बाली के साथ संवाद के समय से शुरू होता है।  गोस्वामी जी मानस में लिखते हैं कि प्रभु के वाण से आहत बाली को प्रभु के ब्रह्म स्वरूप के दर्शन हुए तब उसने पूछा-  मैं बैरी सुग्रीव पियारा, कारण कवन नाथ मोहि मारा ।

प्रभु ने उत्तर दिया –

अनुज वधू, भगिनी, सुत नारी, सुन सठ कन्या सम यह चारी

इन्हीं कुदृष्टि विलोकई जोई, ताहि बधे कछु पाप ना होई

मूढ तोही अतिशय अभिमाना, नारी सिखावन करसी ना काना

मम भुजबल आश्रित तेही जानी, मारा चहसि अधम अभिमानी

( बाली को बल का अभिमान है और शास्त्र कहते हैं की अभिमान ज्ञान को नष्ट कर देता है) तब बाली पश्चाताप करते हुए कहते हैं –

सुनहूं राम स्वामी सन, चल ना चातुरी मोरी , प्रभु अजहूं मैं पापी अंतकाल गति तोरी।

बाली स्वयं की भूल को स्वीकार करते हैं और प्रभु से क्षमा मांगते हैं । प्रभु बाली को पुनः स्वस्थ करने के लिए कहते हैं किंतु बाली जो चाहते हैं वह प्रत्येक भक्तिमार्गी देहधारी चाहता है। किसी व्यक्ति के निर्वाण के समय का सबसे उत्तम क्षण है कि उसके सम्मुख प्रभु स्वयं खड़े हो और वह उनकी कृपा से मोक्ष गति को प्राप्त हो । गोस्वामी जी लिखते हैं कि-

सुनत राम अति कोमल बानी, बाली सीस परसेऊ नीचे पानी

अचल करों तनु राखहूं प्राना , बाली कहे सुन कृपानिधाना

जन्म जन्म मुनि जतन कराही, अंत राम कहूं आवत नाहीं

जासु नाम शंकर बल काशी, देत सबही सब गति अविनाशी

मम लोचन गोचर सोई आवा, बहुरी कि प्रभु अस बनही बनावा।……

अब नाथ करी करुणा विलोकहूं, देहू जो बर मांगहूं

जेही जोनी जनमो कर्म बस तह ,राम पद अनुरागहूं

यह तनय मम सम विनय बल , कल्याणप्रद प्रभु कीजिए गही बांह सुर नरनाह आपन दास अंगद कीजिए

बाली जानते हैं कि यह भगवत भक्ति मांगने का सबसे उचित समय है इसलिए भगवान की परम भक्ति को मांगते हैं। अपने विवेक का उपयोग करते हुए अंगद के सुरक्षित भविष्य को ध्यान में रखकर प्रभु के हाथ में उसका हाथ देते हुए कहते हैं कि यह विनय और बल में मेरे समान है इसे अपना दास स्वीकार कीजिए। प्रभु के तथास्तु कहते ही बाली तन का त्याग कर देते हैं। प्रभु अंगद जी महाराज को किष्किंधा राज्य का युवराज घोषित करते हैं और उन्हें अपनी सेवा में ले लेते हैं।

किष्किंधा कांड में जगत जननी भगवती सीता की खोज के लिए वानरों के बनाए हुए दल में दक्षिण दल का नेतृत्व अंगद जी को सौंपा जाता है। इसमें हनुमान, अंगद, जामवंत, नल, नील आदि उद्भभट वीर और बलवान शामिल किए जाते हैं । दल के सभी सदस्य भगवान से मिलते हैं और सबसे आखिरी में हनुमान जी महाराज के मिलने पर प्रभु अपनी मुद्रिका हनुमान जी महाराज को देकर कहते हैं कि –

बहु प्रकार सीतहि समझायहूं, करी बल बिरह बेगी तुम आयहू।

परम विवेकी और ज्ञानवान अंगद जी महाराज तुरंत समझ जाते हैं कि भगवती सीता को खोजना सभी वानरों को कहा गया है किंतु भगवती से संवाद का कार्य प्रभु ने हनुमान जी महाराज को सौंपा है। वानर दल दक्षिण में सागर के तट पर पहुंचता है । ऋषि संपाती उन्हें भगवती का हरण रावण द्वारा करने और उनके लंका में होने के बारे में बताते हैं। समुद्र को लांघने की एक बड़ी विपत्ति दल पर आती है। तब अंगद जी महाराज समभाव से कहते हैं-

अंगद कहेहू जाहूं मैं पारा,  जिय संशय कछु फिरती बारा।

यह चौपाई उनके श्रेष्ठ व्यक्तित्व को दर्शाती है । वे जानते हैं कि प्रभु उन्हें कब और कैसे कर्तव्यों के निर्वहन के लिए आदेशित करेंगे और किस प्रकार से उनका पालन करना और कराना है। वह यह भी जानते हैं कि अपने से श्रेष्ठ,बड़े और बूढ़ो के समक्ष अपने विचारों को शब्दों के माध्यम से किस प्रकार व्यक्त करना है । वह परम बलशाली है और समुद्र लांघ भी सकते हैं किंतु वह भली प्रकार जानते हैं कि भगवान ने यह कार्य हनुमान जी महाराज को सौंपा है। जामवंत जी हनुमान जी महाराज को उनकी शक्ति याद दिलाते हैं और हनुमान जी महाराज जगत जननी भगवती सीता की खोज कर वापस आकर प्रभु को उनका संदेश सुनाते हैं । इसके बाद युद्ध की संरचना होती है।

प्रभु युद्ध नहीं चाहते और जानते हैं अंगद जी बलवान, बुद्धिमान, कर्तव्य परायण और चतुर हैं । इसलिए रावण को समझाने का दायित्व सौंपकर उन्हें अपना दूत बनाकर रावण के पास भेजते हैं –

बहुत बुझाई तुमहीं का कहहूं, परम चतुर में जानत अहहूं।

अंगद जी महाराज तुरंत समझ जाते हैं कि अब भगवान ने उन्हें कार्य संपन्न हेतु कहा है। इसलिए अब अपने सामर्थ्य का उपयोग कर रावण को समझा कर, युद्ध को टालना और भगवती सीता को प्रभु को वापस करने के लिए उपाय करना है । वे रावण से मिलते हैं, रावण उन्हें प्रलोभन देकर स्वयं के साथ मिलाना चाहता है किंतु वे परम भक्त हैं और अपने कर्तव्यों से विमुख नहीं होते। संवाद के दौरान वे रावण द्वारा प्रभु के किए गए अपमान से क्रोधित होते हैं और रावण को यथा योग्य उत्तर देते हैं । अंगद जी जानते हैं कि प्रभु का प्रताप और आशीर्वाद उनके साथ है इसलिए वह भरी सभा में अपने बल और पौरुष का प्रदर्शन कर रावण को चुनौती देते हैं-

समुझि राम प्रताप कपि कोपा ,सभा मांझ अंगद पन रोपा

जो मम चरण सकही सठ टारी , फिरहूं राम सीता में हारी।

यह संवाद अंगद जी के परम ज्ञानी और बलशाली होने का प्रतीक है। वह प्रभु की सेना का सामर्थ्य प्रस्तुत करने, रावण और उसकी सभा का मान मर्दन करने, प्रभु का भय राक्षसों के मन में बिठाने का कार्य करते हैं। रावण की सभा में कोई उनका पैर हिला नहीं पाता। जब रावण आता है तो वह अपना पैर हटाते हैं, उसका मुकुट भगवान के पास फेंककर रावण को भगवान की शरणागति होने के लिए कहते हैं। युद्ध होता है । भगवान विजय को प्राप्त करते हैं। भगवती सीता से मिलन होता है । भगवान अयोध्या लौटते समय अपने कृपा पात्र अंगद जी महाराज को अपने साथ ले लेते हैं।

अयोध्या में भगवान का राज्य अभिषेक होता है। उसके बाद वानरों की विदाई होती है ।अंगद जी महाराज की विदाई का दृश्य सबसे कारूणिक है। गोस्वामी जी लिखते हैं कि-

अंगद बैठ रहा नहीं डोला , प्रीति देखी प्रभु ताहि ना बोला।

अंगद जी महाराज के नेत्रों से अश्रु बह रहे हैं। वे उठकर हाथ जोड़कर प्रभु के सामने खड़े हो जाते हैं और परम प्रेम से पुलकित हो विनती कर रहे हैं। गोस्वामी जी लिखते हैं कि-

तब अंगद उठी नाई सिर सजल नैन करी जोरी, अति विनीत बोलहूं वचन मनहूं प्रेम रस बोरी ।

सुनू सर्वज्ञ कृपासुख सिंधो, दीन दया कर आरत बंधो

मरती बेर नाथ मोहि बाली , गएहूं तुम्हारे कौंछे घाली

असरन सरन बिरदू संभारी,  मोहि जनी तजहू भगत हितकारी

मोरे तुम प्रभु गुरु पितु माता,  जाऊं कहां तजि पद जल जाता

तुमहीं बिचारी करहु नरनाहा,  प्रभु तजी भवन काज मम काहा

बालक ज्ञान बुद्धि बल हीना,  राखहूं शरण नाथ जन कीन्हा

नीच टहल गृह के सब करिहहूं , पद पंकज विलोकि मम तिरहहूं

अस कहि चरण परेहू प्रभु पाहीं ,अब जनी नाथ कहेहू गृह जाहीं

अंगद जी महाराज जानते हैं कि हनुमान जी महाराज प्रभु के परम सेवक हैं और सदैव प्रभु के साथ रहेंगे इसलिए शायद पूरे समय प्रभु के साथ रहने का अवसर उन्हें ना मिले । वह प्रभु भक्ति में इतने लीन है कि उनकी सेवा में गृह की साफ सफाई तक करने के लिए तैयार हैं । यही उनकी अखंड राम भक्ति का अद्भुत उदाहरण है।

प्रभु अंगद जी महाराज को साथ रखना चाहते हैं किंतु बाली को दिए गए वचनों से बने हुए हैं इसलिए उन्हें किष्किंधा नगरी जाने को कहते हैं मानस में अभिव्यक्त है कि-

निज ऊर माल बसन मनि बाली तनय पहराई , विदा कीन्ह सनमानी प्रभु बहु प्रकार समझाई।

अब प्रभु के नेत्र सजल हो गए,अंगद जी महाराज को उठाकर हृदय से लगा लिया। अपनी गले की माला उतारकर उन्हें पहनाते हुए समझाते हैं कि आप किष्किंधा के युवराज हैं और सुग्रीव के बाद आपको राज्य कार्य संभालना है । भगवान अपने सभी भाइयों के साथ सजल नेत्रों से अंगद जी को विदा करते हैं । अंगद जी बार-बार प्रभु की ओर देखकर दंडवत प्रणाम करते हुए विनय करते हैं कि प्रभु उन्हें हमेशा याद रखें। हनुमान जी महाराज अंगद जी और वानरों को छोड़ने के लिए साथ आते हैं , तब अंगद जी महाराज विदा लेते हुए कहते हैं कि –

कहेहूं दंडवत प्रभु सैं , तुमहीं कहहूं कर जोरी , बार-बार रघुनायकहीं , सुरती करायहूं मोरी।

श्री हनुमान जी महाराज यह बात प्रभु को बताते हैं,प्रभु का गला रूंध जाता है, उनके नेत्र अब भी सजल है,अंगद की स्वामी भक्ति से प्रसन्न होकर प्रभु मगन है।

अंगद जी महाराज के अनुपम चरित्र, शील और गुणों की प्रशंसा स्वयं भगवान जानकी नाथ ने की है। ऐसे परम तेजस्वी राम भक्त श्री अंगद जी महाराज को कोटि कोटि प्रणाम।

जय श्री राम राजा सरकार की । जय हो श्री हनुमंत लाल जी महाराज की।

@ आलोक पाठक

(श्रीराम चरण सेवक)

693 भालदारपुरा, जबलपुर ( मध्य प्रदेश )

98273 58121

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