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चंदेलों की बेटी थी,गोंडवाने की रानी थी..चण्डी थी रणचण्डी थी, वह दुर्गावती भवानी थी”- गोंडवाना साम्राज्य की साम्राज्ञी वीरांगना रानी दुर्गावती

"शौर्य , साहस, स्वाभिमान ,स्वतंत्रता और प्रबंधन की देवी -

✍️ डॉ. आनंद सिंह राणा – ख्यातिलब्ध इतिहासकार

■ वीरांगना रानी दुर्गावती का शासन महान् गोंडवाना साम्राज्य का स्वर्ण युग था । अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के राष्ट्रीय संगठन सचिव डॉ. बालमुकुंद पाण्डेय जी के निर्देशन में अनुसंधान दल के अध्यक्ष रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय के यशस्वी कुलपति प्रो कपिल देव मिश्र जी क्षेत्रीय संगठन मंत्री मध्य क्षेत्र डॉ. हर्षवर्धन सिंह तोमर जी प्रो. अलकेश चतुर्वेदी जी शा. महाकोशल महाविद्यालय एवं कार्यकारी अध्यक्ष श्री नीरज कालिया के मार्गदर्शन में इतिहास संकलन समिति महाकोशल प्रांत के झरोखे से वीरांगना रानी दुर्गावती के गौरवमयी इतिहास की संक्षिप्त गाथा (चित्र क्र. 3 वीरांगना के सेनापति अधार सिंह (सिंहा) के वंशज महान् चित्रकार राममनोहर सिंहा जी का है जो वीरांगना रानी दुर्गावती के शस्त्र पूजन का है जब वो अकबर विरुद्ध समर में जा रही थीं.. ये चित्र उनके वंशज डॉ अनुपम सिंहा ने मुझे प्रेषित किया था 🙏 एतदर्थ अनंत कोटि आभार) –

कीर्तिमय संक्षिप्त वर्णन

वीरांगना दुर्गावती का 5 अक्टूबर 1524 को कालिंजर दुर्ग में राजा कीरतसिंह के यहाँ अवतरण हुआ था ..युवावस्था में ही राजनीति, कूटनीति और युद्ध नीति का ज्ञान प्राप्त हुआ..कालिंजर के प्रबंधन में सहयोग साथ पिता के साथ मिलकर दुर्ग के रक्षार्थ 4 युद्ध लड़े, और विजयश्री प्राप्त हुई..मुगल शासक हुमायूँ को सन् 1539 शेरशाह ने भारत से खदेड़ा.. शेरशाह ने साम्राज्यवादी नीति के अंतर्गत भारत में विस्तार आरंभ किया वहीं अन्य मुस्लिम शासकों और पड़ोसी राज्यों के दवाब के चलते राजा कीरतसिंह ने गोंडवाना साम्राज्य के महान् राजा संग्रामशाह से मित्रता का हाथ बढ़ाया… राजा संग्रामशाह का विशाल गोंडवाना (गढ़ा-कटंगा) साम्राज्य जिसमें 52 गढ़ थे पूर्व से पश्चिम 300 मील और उत्तर से दक्षिण 160 मील तक सुविस्तीर्ण था।जिसमें 70हजार गांव थे, आगे चलकर वीरांगना रानी दुर्गावती ने 80 हजार गांव कर लिए थे, यह साम्राज्य लगभग इंग्लैंड के साम्राज्य के बराबर हो गया था …राजा संग्रामशाह ने राजा कीरतसिंह की गुणवती सुपुत्री वीरांगना दुर्गावती से अपने पुत्र दलपति शाह के विवाह का प्रस्ताव रखकर मित्रता को रिश्तेदारी में बदल दिया.. यद्यपि राजा संग्रामशाह का सन् 1541 में निधन हो गया तथापि राजा कीरतसिंह ने अपना वचन निभाया और सन् 1542 में वीरांगना दुर्गावती का विवाह गोंडवाना के राजा दलपति शाह ने साथ कर दिया.. यह विवाह भारत में सामाजिक समरसता का अद्वितीय उदाहरण है.. सन् 1545 में कालिंजर दुर्ग पर हमले में शेरशाह मारा गया और राजा कीरतसिंह भी शहीद हो गए.. इधर गोंडवाना साम्राज्य में भी एक अनहोनी घटना घटी,राजा दलपति शाह का निधन सन् 1548 में हो गया.. वीरांगना इस वज्रपात से विचलित हुईं, परंतु साहस के साथ अपने अल्पवयस्क पुत्र वीर नारायण सिंह की ओर ले गोंडवाना साम्राज्य की सत्ता संभाल ली… इस तरह गोंडवाना साम्राज्य की वीरांगना रानी दुर्गावती का महान् साम्राज्ञी के रुप में उदय हुआ। रानी दुर्गावती ने 16 वर्ष शासन किया और यही काल गोंडवाना साम्राज्य का स्वर्ण युग था।गोंडवाना साम्राज्य राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक,कला एवं साहित्य के क्षेत्र में सुव्यवस्थित रुप से पल्लवित और पुष्पित होता हुआ अपने चरमोत्कर्ष तक पहुँचा।वर्तमान में प्रचलित जी.एस. टी. जैंसी कर प्रणाली रानी दुर्गावती के शासनकाल में लागू की गई थी, फलस्वरुप तत्कालीन भारत वर्ष गोंडवाना ही एकमात्र राज्य था जहाँ की जनता अपना लगान स्वर्ण मुद्राओं और हाथियों में चुकाते थे। अद्भुत एवं अद्वितीय जल प्रबंधन था 52 तालाब और 40 बावलियों का रखरखाव था। गढ़ा उन दिनों उत्तर – मध्य भारत का हिन्दुओं का धार्मिक केंद्र बिंदु था, जहाँ कोई भी हिन्दू अपनी इच्छानुसार धार्मिक अनुष्ठान कर सकता था, इसलिए इस स्थान को लघुकाशी वृंदावन कहा जाता था।उपरोक्तानुसार स्वर्ण युग के लिए आवश्यक सभी प्रतिमानों के आलोक में सिंहावलोकन करने पर यही प्रमाणित होता है कि यह काल गोंडवाना साम्राज्य का स्वर्ण युग था।

वीरांगना रानी दुर्गावती की युद्ध नीति —

रानी दुर्गावती की युद्ध नीति और कूटनीति विलक्षण थी, जिसकी तुलना काकतीय वंश की वीरांगना रुद्रमा देवी और फ्रांस की जान आफ आर्क को छोड़कर विश्व की अन्य किसी वीरांगना, मसलन आस्ट्रिया की मारिया थेरेसा, इंग्लैंड की एलिजाबेथ प्रथम एवं रुस की केथरीन द्वितीय आदि से नहीं की जा सकती है।युद्ध के 9 पारंपरिक युद्ध व्यूहों क्रमशः वज्र व्यूह, क्रौंच व्यूह, अर्धचन्द्र व्यूह, मंडल व्यूह, चक्रशकट व्यूह, मगर व्यूह, औरमी व्यूह, गरुड़ व्यूह, और श्रीन्गातका व्यूह से परिचित थीं। इनमें क्रौंच व्यूह और अर्द्धचंद्र व्यूह में सिद्धहस्त थीं। क्रौंच व्यूह रचना का प्रयोग ,जब सेना ज्यादा होती थी, तब किया जाता था जिसमें क्रौंच पक्षी के आकार के व्यूह में पंखों में सेना और चोंच पर वीरांगना होती थीं और शेष अंगों पर प्रमुख सेनानायक होते थे। वहीं दूसरी ओर जब सेना छोटी हो और दुश्मन की सेना बड़ी हो तब इस व्यूह रचना का प्रयोग किया जाता था, जिससे सेना एक साथ ज्यादा से ज्यादा जगह से दुश्मन पर मार सके।वीरांगना की रणनीति अकस्मात् आक्रमण करने की होती थी। रानी दुर्गावती दोनों हाथों से तीर और तलवार चलाने में निपुण थीं। गोंडवाना साम्राज्य की सत्ता संभालने के कुछ दिन बाद ही गढ़ों की संख्या 52 से बढ़कर 59हो गई थी। वीरांगना ने एक बड़ी स्थायी और सुसज्जित सेना तैयार की, जिसमें 20 हजार अश्वारोही एक सहस्र हाथी और प्रचुर संख्या में पदाति थे।

वामपंथी इतिहासकारों का कूट वमन
वीरांगना रानी दुर्गावती के शौर्य, साहस एवं पराक्रम के संबंध में प्रकाश डालते हुए तथाकथित छल समूह के वामपंथी एवं एक दल विशेष के समर्थक इतिहासकारों सहित अबुल फजल, बदायूंनी और फरिश्ता ने कुल 4 युद्धों का टूटा-फूटा वर्णन कर इति श्री कर ली है, जबकि वीरांगना ने 16 युद्ध (छुटपुट युद्धों को छोड़कर) लड़े। 16 युद्धों में से 15 युद्धों विजयी रहीं, जिसमें 12 युद्ध मुस्लिम शासकों से लड़े गये, उसमें से भी 6 मुगलों के विरुद्ध लड़े गये। पिता राजा कीरतसिंह के साथ मिलकर, हनुमान द्वार का युद्ध, गणेश द्वार का युद्ध, लाल दरवाजा का युद्ध.. बुद्ध भद्र दरवाजा का युद्ध (कालिंजर का किला अब कामता द्वार,पन्ना द्वार, रीवा द्वार हैं)लड़े गये जिसमें विजयश्री प्राप्त की।
गोंडवाना की साम्राज्ञी के रुप में सत्ता संभालते ही मांडू के अय्याश शासक बाजबहादुर ने गोंडवाना साम्राज्य दो बार आक्रमण किए परंतु रानी दुर्गावती ने दोनों बार जम कर ठुकाई कर दुर्गति कर डाली और मांडू तक खदेड़ा। बाजबहादुर जीवन भर शरणागत रहा। आगे मालवा के सूबेदार शुजात की कभी हिम्मत नहीं हुई। शेरखान (शेरशाह) कालिंजर अभियान में मारा गया। कुछ दिनों बाद मुगलों ने पानीपत के द्वितीय युद्ध के उपरांत पुनः सत्ता हथिया ली और अकबर शासक बना। शीघ्र ही येन केन प्रकारेण साम्राज्य विस्तार करना आरंभ कर दिया।

 हमलावारों को दो टूक जबाब
रानी दुर्गावती के गोंडवाना साम्राज्य की संपन्नता और समृद्धि की चर्चा कड़ा और मानिकपुर के सूबेदार आसफ खान द्वारा मुगल दरबार में की गई । धूर्त, लंपट और चालाक अकबर लूट और विधवा रानी को कमजोर समझते हुए जबरदस्ती गोंडवाना साम्राज्य हथियाने के उद्देश्य से रानी को आत्मसमर्पण के लिए धमकाया परंतु गोंडवाना की स्वाभिमानी और स्वतंत्रप्रिय वीरांगना रानी दुर्गावती नहीं मानी। अकबर का संदेश था कि स्त्रियों का काम रहंटा कातने का है, तो रानी ने संदेश के साथ एक सोने का पींजन भेजा और कहा कि आपका भी काम रुई धुनकने का है। अकबर तिलमिला गया और उसने आसफ खान को गोंडवाना साम्राज्य की लूट और उसके विनाश के लिए रवाना किया। इसके पूर्व अकबर ने दो गुप्तचरों क्रमशः गोप महापात्र और नरहरि महापात्र को भेजा परंतु वीरांगना ने दोनों को अपनी ओर मिला लिया। उन्होंने अकबर की योजना और आसफ खाँ के आक्रमण के बारे में रानी दुर्गावती को सब कुछ बता दिया।
वीरांगना रानी दुर्गावती सतर्क हो गईं और सिंगौरगढ़ में मोर्चा बंदी कर ली। आसफ खान 6 हजार घुड़सवार सेना 12 हजार पैदल सेना एवं तोपखाने तथा स्थानीय मुगल सरदारों के साथ सिंगोरगढ़ आ धमका। इधर रानी दुर्गावती के साथ, उनके पुत्र वीर नारायण सिंह, अधार सिंह, हाथी सेना के सेनापति अर्जुन सिंह बैस, कुंवर कल्याण सिंह बघेला, चक्रमाण कलचुरि, महारुख ब्राह्मण, वीर शम्स मियानी, मुबारक बिलूच,खान जहान डकीत, महिला दस्ता की कमान रानी दुर्गावती की बहन कमलावती और पुरा गढ़ की राजकुमारी (वीर नारायण की होने वाली पत्नी) संभाली। अविलंब युद्ध आरंभ हो गया। सिंगोरगढ़ का प्रथम युद्ध – आसफ खान ने आत्मसमर्पण के लिए कहा, वीरांगना ने कहा कि किसी शासक के नौकर से इस संदर्भ में बात नहीं की जाती है। वीरांगना ने भयंकरआक्रमण किया, मुगलों के पैर उखड़ गये आसफ खान भाग निकला। सिंगौरगढ़ का द्वितीय युद्ध – पुन: मुगलों के वही हाल हुए लेकिन मुगलों का तोपखाना पहुंच गया और रानी को खबर लग गयी उन्होंने गढ़ा में मोर्चा जमाया और सिंगोरगढ़ छोड़ दिया। सिंगौरगढ़ का तृतीय युद्ध – मुगलों का तोपखाना भारी पड़ गया और सिंगोरगढ़ हाथ से निकल गया। अघोरी बब्बा का युद्ध – यह चौथा युद्ध था जिसका उद्देश्य मुगल सेना को पीछे हटाना था ताकि वीरांगना गढ़ा से बरेला के जंगलों की ओर निकल जाए। घमासान युद्ध हुआ और सेनानायक अर्जुन सिंह बैस ने आसफ खाँ को बहुत पीछे तक खदेड़ दिया। वीरांगना ने तोपखाने से निपटने के लिए एक शानदार रणनीति बनायी जिसके अनुसार बरेला (नर्रई) के सकरे और घने जंगलों के मध्य मोर्चा जमाया ताकि तोपों की सीधी मार से बचा जा सके।

गौर नदी का युद्ध –

वीरांगना रानी दुर्गावती के जीवन के 15वें और मुगलों से 5वें युद्ध में 22 जून 1564 को स्वतंत्रता,स्वाभिमान और शौर्य की देवी – विश्व की श्रेष्ठतम वीरांगना रानी दुर्गावती ने,प्रात:सेनानायक अर्जुन सिंह बैस के शहीद होने का समाचार मिलते ही “अर्द्धचंद्र व्यूह”बनाते हुए “गौर नदी के युद्ध” में आसफ खाँ सहित मुगलों की सेना पर भयंकर आक्रमण किया और पुल तोड़ दिया ताकि तोपखाना नर्रई (बरेला) न पहुँच सके। मुगल सेना तितर बितर हो गई जिसको जहां रास्ता मिला भाग निकला..वीरांगना ने पुन:रात्रि में हमले की योजना बनाई परंतु सरदारों की असहमति के कारण निर्णय बदलना पड़ा.. यहीं भारी चूक हो गई, यदि रात्रि में आक्रमण होता तो इतिहास कुछ और ही होता.. अंततः वीरांगना ने नर्रई की ओर कूच किया और युद्ध के लिए “क्रौंच व्यूह” रचना तैयार की.।23 जून 1564 को नर्रई में प्रथम मुठभेड़ हुई, रानी और उनके सहयोगियों ने मुगलों की जमकर ठुकाई की। मुगल भाग निकली और डरकर बरेला तक भागी। 23 जून की रात तक तोपखाना गौर नदी पार कर बरेला पहुंच गया। 23 जून की रात को घातक षड्यंत्र हुआ। .आसफ खान ने रानी के एक छोटे सामंत बदन सिंह को घूस देकर मिला लिया.. उसने रानी की रणनीति का खुलासा कर दिया कि कल युद्ध में रानी मुगलों को घने जंगलों की ओर खींचेगी जहाँ तोपखाना कारगर नहीं होगा और सब मारे जाएंगे। आसफ खान डर गया उसने उपचार पूंछा.. तब बदन सिंह ने बताया कि नर्रई नाला सूखा पड़ा है और उसके पास पहाड़ी सरोवर है जिसे यदि तोड़ दिया जाए तो पानी भर जाएगा और रानी नाला पार नहीं कर पाएगी और तोपों की मार सीधा पड़ेगी.।उधर रात में रानी को अनहोनी अंदेशा हुआ.. उन्होंने सरदारों से रात में ही हमले का प्रस्ताव रखा पर सरदार नहीं माने.. यदि मान जाते तो इतिहास कुछ और होता.।बहरहाल युद्ध अंतिम घड़ी आ ही गयी.. वीरांगना ने “क्रौंच व्यूह” रचा.. सारस पक्षी के समान सेना जमाई गई.. चोंच भाग पर रानी दुर्गावती स्वयं और दाहिने पंख पर युवराज वीरनारायण और बायें पंख पर अधारसिंह खड़े हुए.. 24 जून 1564 को प्रातः लगभग 10 बजे मोर्चा खुल गया.. घमासान युद्ध प्रारंभ हुआ.. पहले हल्ले में मुगलों के पांव उखड़ गए.. मुगलों ने 3 बार आक्रमण किये और तीनों बार गोंडों ने जमकर खदेड़ा… इसलिए मुगलों ने तोपखाना से मोर्चा खोल दिया.. रानी ने योजना अनुसार जंगलों की ओर बढ़ना शुरू किया परंतु बदन सिंह की योजना अनुसार पहाड़ी सरोवर तोड़ दिया गया.. नर्रई में बाढ़ जैसी स्थिति बन गयी.. अब रानी घिर गयी.. इसी बीच अपरान्ह लगभग 3 बजे वीरनारायण के घायल होने की खबर आई.. वीरांगना जरा भी विचलित नहीं हुई.. आंख में तीर लगने के बाद भी जंग जारी रखी.. मुगल सेना के बुरे हाल थे परंतु रानी को एक तीर गर्दन पर लगा रानी ने तीर तोड़ दिया.. हाथी सरमन के महावत को अधार सिंह पीछे हटने का आदेश दिया परंतु रानी समझ गयी थी कि अब वो नहीं बचेंगी.. इसलिए अब वो गोल में समा गयीं और भीषण युद्ध किया जब उनको मूर्छा आने लगी तो उन्होंने अपनी कटार से प्राणोत्सर्ग किया..

स्वाभिमान

विश्व में ऐंसा दूसरा उदाहरण नहीं है..वीरांगना ने आत्मोत्सर्ग के पूर्व अपने सेनापति अधार सिंह से कहा था कि “मृत्यु तो सभी को आती है अधार सिंह, परंतु इतिहास उन्हें ही याद रखता है जो स्वाभिमान के साथ “जिये और मरे”

पुनः अवतरण दिवस पर शत् शत् नमन …..

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