Uncategorized

प्रेस की स्वतंत्रता पर कुछ अपरिहार्य प्रश्न…..

धीरेन्द्र शुक्ल
विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर पत्रकारिता से जुडे संस्थानों और पत्रकारों के बीच प्रेस की आजादी को लेकर मंथन चल रहा है,तरह-तरह की बातें हो रही हैं और भारत में मोदी मीडिया,गोदी मीडिया जैसे संबोधनों की सार्थकता और निरर्थकता पर भी बात हो रही है। पूरा ध्यान इस बात पर है कि प्रेस की आजादी को लेकर सरकारों की सोच और दृष्टिकोण क्या है,यह बात है भी ऐसी कि इस पर ध्यान दिया भी जाना चाहिए, लेकिन प्रश्न यह है कि भारत में पत्रकारिता को लेकर आज के संदर्भों में क्या यह एकमात्र प्रश्न है?
भारत में प्रेस की स्वतंत्रता क्या पूर्ण रूप से इसी बात से निर्धारित होती है कि सरकार की कड़ाई या उदारता प्रेस के प्रति कितनी है? क्या दूसरे कोई कारण नहीं हैं जो प्रेस की स्वतंत्रता को बाधित करते हों ?
भारत में प्रेस की स्वतंत्रता को जो बातें वस्तुतः प्रभावित करती हैं उन पर जब तक हम विचार नहीं करेंगे तब तक यह विमर्श अर्थहीन है, बेमानी है और बेईमानी भी।
कुलदीप नैयर की बात आपकी स्मृति में आती है? आपातकाल को लेकर उन्होंने तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल से बात की तो शुक्ल ने उनसे जो कहा वह प्रेस की स्वतंत्रता के सही विमर्श की दिशा का निर्धारण करता है, शुक्ल ने कहा कि ’ हमने प्रेस को झुकने के लिए कहा लेकिन वे तो लेट गए।’
तो फिर बात यही बस नहीं होनी चाहिए कि स्वतंत्रता सरकारें कितनी देती हैं, बात यह भी होनी चाहिए कि पत्रकारिता और पत्रकार स्वयं कितनी स्वतंत्रता चाहते हैं। क्या वाकई उनके गले में कोई सरकारी दबाव अटक कर उनकी आवाज को घुटन में बदल रहा है या फिर वे स्वयं प्रलोभनों के लॉलीपाप चूसने में इतने व्यस्त हैं कि जिन बातों को,राजों को उन्हें जोर से चिल्लाकर कहना चाहिए उन्हें वे खुद भूल जाना चाहते हैं, भूल जाते हैं।
थोड़ा इस तरफ आइए, आज की अप्रिय सच्चाई की तरफ। समाचार पत्रों में संपादक एक निर्णायक संस्था हुआ करती थी,समाचार पत्र की दिशा और प्रभाव का निर्धारण संपादक ही किया करता था लेकिन अब क्या स्थिति है? बडे़-बडे़ समाचार प्रतिष्ठानों में संपादक उसे बनाया जाता है जिसकी लाइजनिंग बहुत बढिया होे। लाइजनिंग, अर्थात सरकारी अधिकारियों से पत्रकारों के रिश्ते। मैं तीस सालों से पत्रकारिता में हूं और मैने अपने सामने और अपने साथ यह होते देखा है। मैं भोपाल में था, एक बडे पत्रकारिता प्रतिष्ठान में काम मांगने गया और संपादक से मिला तो उन्होने मुझसे पहला और एकमात्र प्रश्न किया कि मेरी लाइजनिंग कैसी है?
एक और संपादक से मिला तो उन्होंने पूछा कि आपका सबसे मजबूत पक्ष कौन सा है? मैने कहा विचार और भाषा। वे बोले,अरे ये सब छोड़ो, ये बताओ कि आपकी लाइजनिंग कैसी है। एक बडा समाचार पत्र जबलपुर आने वाला था, लंबे समय से मैं उसके समूह संपादक के संपर्क में था, वे जब जबलपुर आए तो उनका फोन आया कि मैं कल जबलपुर में हूं आप मुझसे मिलने आ सकते हैं। मैं अगली सुबह भोपाल से जबलपुर आया, समाचार संपादक के पद पर काम की संभावना को जानने के लिए,उनसे जबलपुर की पत्रकारिता के परिदृश्य और पत्रकारों और मेरी भूमिका को लेकर लगभग ढाई घंटे बात हुई और आखिर में उन्होंने मुझसे यही प्रश्न किया कि आपकी लाइजनिंग कैसी है? और वे यहीं नहीं रुके उन्होंने यह भी कहा कि क्या कोई बड़ा नेता आपकी सिफारिश कर सकता है? यह पत्रकारिता में किए गए सबसे निकृष्ट प्रश्नों में से एक था इसलिए मुझे बहुत जोर से गुस्सा आ गया और मैने उनसे कहा कि एक नहीं कई लोग सिफारिश कर सकते हैं पर मैं ऐसा करूंगा नहीं आपको नौकरी अगर मेरी क्षमताओं पर देनी हो तो ठीक इस तरह की बातें मैं बर्दाश्त कर नहीं पाता। स्पष्ट है कि फिर नौकरी तो मिली ही नहीं कुछ दिनों बाद मैने वहां एक ऐसे साथी को समाचार संपादक के पद पर काम करते हुए देखा जो अपनी लाइजनिंग के लिए बहुत ख्यात या कुख्यात थे।
एक ऐसे साथी को भी मैं पिछले तीस साल से व्यक्तिगत रूप से जानता हूं जिन्हें जबलपुर की पत्रकारिता में बहुत बडे़ नामों में गिना जाता है लेकिन पूरे जीवन उन्हें समाचार लिखना तक नहीं आया लेकिन वे मात्र अपनी असाधारण लाइजनिंग की सीढियांें पर ऊपर से ऊपर चढते गए।
सच्चाई यह है कि समाचार पत्रों में प्रशासनिक और पुलिस की बीट देखने वाले समझदार संवाददाताओं के पास कई बार ऐसे समाचार होते हैं जो अधिकारियों की कुर्सी और पूरा अस्तित्व हिला सकते हैं, यही वे समाचार होते हैं जिन्हें व्यक्त करने की स्वतंत्रता की आकांक्षा और समर्थन यह विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस करता है लेकिन क्या ये संवाददाता ऐसा करते हैं? कर पाते हैं का प्रश्न तो बाद में आता है पहला प्रश्न यह है कि क्या उनके भीतर इस बात की अकुलाहट होती है कि वे ऐसे समाचारों को छाप कर समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को पूरा करें और गर्व से कह सकें कि हां यह मैने किया है?
हमारे एक परम आदरणीय पत्रकार मित्र हुआ करते थे,पंडित अवधेश मिश्र जी। वे कहते थे कि सच्चा पत्रकार वह है जो सबको जाने पर जिसे कोइ न जाने। वे कहते थे कि पत्रकार को जब बहुत लोग जानने लग जाते हैं तो समाचारों तक उसकी पहुंच में बड़ी बाधाएं आ जाती हैं। क्या इस कसौटी पर किसी पत्रकार को आज परखा जा सकता है? और परखा जाए तो कितने इस पर खरे उतरेंगे। अब तो सेलेब्रिटी पत्रकार बनने की होड़ लगी है और कहने की स्वतंत्रता में बडे़ रोडे़ अटकाए जा रहे हैं यह एक ऐसा जुमला बन गया है जैसे जुम्मन मियां मुंह में पान की पीक भरकर अटर-गटर बोल जाते हों।
तो सारांश यह है कि आपके यानि पत्रकारों के पैरों में क्या बेड़ियां लगी हैं यह देखिए, है कोई बेड़ी? नहीं है। आप जब तक खुद बिकने तैयार न हों तब तक कोई आपको खरीद नहीं सकता लेकिन आप खुद ही अपनी बोली लगाकर बिकें और बाद में इस बात का रोना रोएं कि मुझे खरीद लिया गया, मेरी स्वतंत्रता की हत्या कर दी नहीं तो मैं व्यवस्था की चूलें हिला देता, तो क्या इस रुदन का कोई अर्थ है? क्या यह रुदन समाज के हित के लिए माना जा सकता है?
आज पत्रकारिता के लिए संभावनाएं जितनी प्रबल हैं उतनी संभवतः इतिहास में कभी नहीं रहीं। पूरी व्यवस्था सडांध मार रही है, विसंगतियां खोजने की आवश्यकता ही नहीं वे उफान पर हैं फिर भी उनके बारे में पत्रकारिता चर्चा करने के लिए तक तैयार नहीं है। गोदी या मोदी मीडिया कहकर आप सच्चाई के पहरुए नहीं बन सकते।
क्या यह बात आपको चकित नहीं करती कि जिस अडानी पर घोटालों का आरोप लगाते राहुल गांधी थकते नहीं उन आरोपों की सच्चाई जानने के लिए कभी किसी ने कोई उपक्रम क्यों नहीं किया? जिन एन राम ने बोफोर्स घोटाले को उजागर किया था वे और उनका पत्रकारिता संस्थान आज भी कथित रूप से सत्ता के विरूद्ध हैं और बहुत सक्षम भी हैं तो फिर उन्हें ऐसे प्रमाणों तक पहुंचने से किसने रोक रखा है, फिर इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप है और खुद रवीश कुमार भी हैं जिन्हें जनसरोकारों वाली पत्रकारिता के लिए मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। फिर ऐसा भी है कि चलिए एक क्षण के लिए मान लिया जाए कि कोई एक पत्रकार बिकाउ हो सकता है, एक संस्थान भी बिक सकता है लेकिन क्या सारे देश के सारे पत्रकारिता प्रतिष्ठान ही बिक गए हैं? या फिर इन सभी का यह सामूहिक तर्क है कि उन्हें कहने से रोका जा रहा है? इसलिए स्थितियों का विश्लेषण यह बताता है कि गोदी और मोदी मीडिया ऐसे शब्द हैं जिन्हें पत्रकारिता को लंाछित करने के लिए राजनीति ने तैयार किया है लेकिन जिसका उपयोग समाज में तक सत्ता संस्थानों के समर्थक और विरोधी धड़ल्ले से कर रहे हैं।
आज पत्रकारिता की साख पर संदेहों की काली छाया है तो यह सत्ता प्रतिष्ठानों के कारण नहीं पत्रकारों और पत्रकारिता संस्थानों की लाभ और सुविधा आधारित सुविचारित प्रतिबद्धता के कारण है। मैने सुना है (हालांकि इसकी सच्चाई का कोई दावा मैं नहीं कर सकता)कि जवाहरलाल नेहरू ने एक बार इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के मालिक श्री रामनाथ गोयनका से कहा था कि इंदिरा मेरी बेटी है और इसे मैं तुम्हारे हवाले कर रहा हूं, इसका ध्यान रखना, पर इंदिरा गांधी ने जब आपातकाल लगाया तो एकमात्र इंडियन एक्सप्रेस ही था जिसने आपातकाल का घोषित और पुरजोर विरोध किया और आपातकाल के बाद आपातकाल के समय हुए अनाचार-अत्याचारों की सत्य घटनाओं को छापकर इंदिरा गांधी को सत्ता से बाहर करने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई। क्या जैसी लाइजनिंग गोयनका जी की थी वैसी किसी और की हो सकती है? लेकिन उन्होंने प्रेस की स्वतंत्रता के महत्व को समझा और व्यक्तिगत लाभ को अछूत मानकर वह किया जो एक सत्यागृही अर्थात सत्य के प्रति आगृह रखने वाले पत्रकार को करना चाहिए था।
वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे पर किए जा रहे ढकोसलों से कुछ नहीं होता। यह स्मरण रखा जाना चाहिए कि राजनीति कभी सत्य आधारित नहीं होती,उसमें सत्य का अंश हो सकता है, पूरा सत्य नहीं इसलिए उसके अर्धसत्य के दुश्प्रभाव समाज पर किस तरह, किन रूपों में पड रहे हैं उसे सामने लाने का उत्तरदायित्व पत्रकार का होता है और अभी कम से कम भारत में ऐसी स्थिति नहीं है कि उसे कहने से किसी को रोका जा सके।
आज सोशल मीडिया पर तो कोई रोक नहीं है। लेकिन अगर मोदी सरकार इतनी खराब है जितनी बताई जा रही है तो उसके विरूद्ध तथ्यात्मक समाचार आज तक कोई भी प्रकाशित क्यों नहीं कर सका? कौन रोक रहा है?
सत्य बोलना और सत्य की राह पर चलना कभी भी सुविधाजनक नहीं रहा,इसका मोल तो चुकाना ही पड़ता है फिर पत्रकारिता का तो काम ही है असत्य को उजागर करना तो वह सुरक्षित तो हो ही नहीं सकती लेकिन आज सुरक्षित ही नहीं समृद्धि और सम्मानपूर्ण जीवन का साधन बन गई है तो इसके कारणों का विश्लेषण किया जाना चाहिए और यह भी समझा जाना चाहिए कि पत्रकारिता की विकृतियां ऐसे ही बढती गईं तो उसका भविष्य क्या होगा।
मुझे लगता है कि भारत में विश्व पत्रकारिता स्वतंत्रता दिवस(वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे) पर पत्रकारों को इस बात पर सच्चाई से विचार करना चाहिए कि उन पर बंधन हैं या उन्होंने सुविधाओं का सुख लेने के लिए इन बंधनों को स्पर्धाओं के माध्यम से प्राप्त किया है? क्या इस दिन रोवारेंट करना एक परंपरा है? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि एकदिन ऐसा भी आए जब हम इन बातों का उल्लेख कर सकें कि स्वतंत्रता के प्रति अपनी असाधारण प्रतिबद्धता के कारण पत्रकारिता ने ऐसा परिवर्तन करके दिखा दिया जो उसकी धधकती हुई आग का प्रमाण है? क्या पत्रकारिता के हिस्से में उपलब्धियां निरंतर घटती जा रही हैं?
अजहर इनायती का एक शेर है-ये और बात है कि आंधी हमारे बस में नहीं
मगर चराग जलाना तो इख्तियार में है
चराग जलाने का यह इख्तियार और ज़रूरत हमेशा कायम रहे और अकबर इलाहाबादी के शब्दों में कहें तो तीर -कमान, तलवार और तोपों को शिकस्त देने का पत्रकारिता का हुनर और जज्बा हमेशा बने रहे-
खेंचों न कमानों को न तलतवार निकालो
जब तोप मुकाबिल हो, अखबार निकालो
विश्व पत्रकारिता स्वतंत्रता दिवस पर सभी पत्रकारों को अशेष आत्मीय शुभकामनाएं और पाठकों को भी।
– धीरेन्द्र शुक्ल

Tags

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button
error: Content is protected !!
Close
Close