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“स्व के लिए पूर्णाहुति देने वाले अलबेले क्रांतिकारी थे … ठाकुर रोशन सिंह

■ प्रो. डॉ आनंद सिंह राणा (प्रसिद्ध इतिहासकार)

“ॐ”.. ‘जिंदगी जिंदा-दिली को जान ऐ रोशन!वरना कितने मरे और पैदा होते जाते हैं’-
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महा महारथी श्रीयुत ठाकुर रोशन सिंह का जन्म 22 जनवरी, 1892 को शाहजहाँपुर में गांव ‘नवादा’में हुआ था। उनकी माता का नाम कौशल्या देवी और पिता का नाम ठाकुर जंगी सिंह था। ठाकुर रोशन सिंह का पूरा परिवार ‘आर्य समाजी था। वे अपने पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़े थे। जब गाँधीजी ने ‘असहयोग आन्दोलन शुरू किया, तब रोशन सिंह ने शाहजहाँपुर और बरेली जि़ले के ग्रामीण क्षेत्र में अद्भुत योगदान दिया था, यहीं पुलिस के अत्याचार के विरुद्ध गोली चला दी थी परिणामस्वरूप 2 वर्ष की सजा हुई थी।
हिन्दू धर्म, आर्य संस्कृति, भारतीय स्वाधीनता और क्रान्ति के विषय में ठाकुर रोशन सिंह सदैव पढ़ते व सुनते रहते थे। ईश्वर पर उनकी अगाध श्रद्धा थी। हिन्दी, संस्कृत, बंगला और अंग्रेज़ी इन सभी भाषाओं को सीखने के वे बराबर प्रयत्न करते रहते थे। स्वस्थ्य लम्बे, तगड़े सबल शरीर के भीतर स्थिर उनका हृदय और मस्तिष्क भी उतना ही सबल और विशाल था। ठाकुर रोशन सिंह 1920 में असहयोग आन्दोलन से पूरी तरह प्रभावित हो गए थे और जेल भेज गए परंतु गांधीजी द्वारा असहयोग आंदोलन वापस ले लेने के कारण, निराश हो गए थे। इसके बाद ही श्रीयुत रोशन सिंह क्रांतिकारी हो गए।
ठाकुर रोशन सिंह स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले क्रांतिकारी थे। 9 अगस्त, 1925 को लखनऊ के पास ‘काकोरी स्टेशन के निकट काकोरी अनुष्ठान में सरकारी खजाना हस्तगत किया गया था, जिसमें ठाकुर रोशन सिंह की विशेष भूमिका रही थी । वे महा महारथी रामप्रसाद बिस्मिल के साथ रहकर बरतानिया सरकार के विरुद्ध उत्साह पूर्वक हर अनुष्ठान में भाग लेने लगे।
“काकोरी अनुष्ठान “के आरोप में वे 26 सितम्बर, 1925 को गिरफ़्तार किये गए थे। जेल जीवन में पुलिस ने उन्हें मुखबिर बनाने के लिए बहुत कोशिश की, लेकिन वे डिगे नहीं। चट्टान की तरह अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहे। ‘काकोरी अनुष्ठान ‘के सन्दर्भ में महा महारथी रामप्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ की तरह ठाकुर रोशन सिंह को भी फ़ाँसी की सज़ा दी गई थी।
यद्यपि लोगों का अनुमान था की उन्हें आजीवन कारावास मिलेगा, पर वास्तव में उनके प्रारब्ध में स्व के लिए बलिदान ही लिखा था और उसके लिए फ़ाँसी ही श्रेष्ठ माध्यम था।
फ़ाँसी की सज़ा सुनकर उन्होंने अदालत में ‘ओंकार का उच्चारण किया और फिर चुप हो गए। “ॐ” मंत्र के वे अनन्य उपासक थे। अपने साथियों में रोशन सिंह प्रौढ़ थे।रोशन सिंह को इसलिए युवक मित्रों की फ़ाँसी विचलित रही थी। अदालत से बाहर निकलने पर उन्होंने साथियों से कहा था हमने तो जि़न्दगी का आनंद खूब ले लिया है, मुझे फ़ाँसी हो जाये तो कोई दु:ख नहीं है, लेकिन तुम्हारे लिए मुझे अफ़सोस हो रहा है, क्योंकि तुमने तो अभी जीवन का कुछ भी नहीं देखा। उसी रात रोशन सिंह लखनऊ से ट्रेन द्वारा इलाहाबाद जेल भेजे गए। उन्हें इलाहाबाद की ‘मलाका जेल में फ़ाँसी दिए जाने का फैसला किया गया था। उसी ट्रेन से ‘काकोरी कांड के दो अन्य सेनानी विष्णु शरण दुबलिस और मन्मथनाथ गुप्त भी इलाहाबाद जा रहे थे। उनके लिए वहाँ की नेनी जेल में कारावास की सज़ा दी गई थी।
लखनऊ से इलाहाबाद तक तीनों साथी, जो अपने क्रांति जीवन और ‘काकोरी यज्ञ “में भी साथी थे, बातें करते रहे। डिब्बे के दूसरे यात्रियों को जब पता चला की ये तीनों क्रन्तिकारी और ‘काकोरी अनुष्ठान “के वीर हैं तो उन्होंने श्रद्धा-पूर्वक इन लोगों के लिए अपनी-अपनी सीटें ख़ाली करके आराम से बैठने का अनुरोध किया। रेलगाड़ी में भी ठाकुर रोशन सिंह बातचीत के दौरान बीच-बीच में ‘ओऽम मंत्र का उच्च स्वर में जप करने लगते थे। मलाका जेल में रोशन सिंह को आठ महीने तक बड़ा कष्टप्रद जीवन बिताना पड़ा। न जाने क्यों फ़ाँसी की सज़ा को क्रियान्वित करने में अंग्रेज़ अधिकारी बंदियों के साथ ऐसा अमानुषिक बर्ताव कर रहे थे। फ़ाँसी से पहले की एक रात ठाकुर रोशन सिंह कुछ घंटे सोए, फिर देर रात से ही ईश्वर भजन करते रहे। प्रात:काल शौच आदि से निवृत्त होकर यथा नियम स्नान-ध्यान किया। कुछ देर ‘गीता पाठ में लगाया, फिर पहरेदार से कहा- ‘चलो। वह हैरत से देखने लगा कि यह कोई आदमी है या देवता। उन्होंने अपनी काल कोठरी को प्रणाम किया और ‘गीता हाथ में लेकर निर्विकार भाव से फ़ाँसी घर की ओर चल दिए।
ठाकुर रोशन सिंह ने 13 दिसम्बर, 1927 को इलाहाबाद की नैनी जेल की काल कोठरी से अपने एक मित्र को पत्र में लिखा- एक सप्ताह के भीतर ही फ़ाँसी होगी। ईश्वर से प्रार्थना है कि आप मेरे लिए रंज हरगिज न करें। मेरी मौत खुशी का कारण होगी। दुनिया में पैदा होकर मरना जरूर है। दुनिया में बदफैली करके अपने को बदनाम न करें और मरते वक्त ईश्वर को याद रखें, यही दो बातें होनी चाहिए। ईश्वर की कृपा से मेरे साथ यह दोनों बातें हैं। इसलिए मेरी मौत किसी प्रकार से अफसोस के लायक नहीं है। दो साल से बाल-बच्चों से अलग रहा हूँ। इस बीच ईश्वर भजन का खूब मौका मिला। इससे मेरा मोह छूट गया और कोई वासना बाकी न रही। मेरा पूरा विश्वास है कि दुनिया की कष्ट भरी यात्रा समाप्त करके मैं अब आराम की ज़िंदगी जीने के लिए जा रहा हूँ। हमारे शास्त्रों में लिखा है कि जो आदमी धर्म युद्ध में प्राण देता है, उसकी वही गति होती है, जो जंगल में रहकर तपस्या करने वाले महात्मा मुनियों की…। पत्र समाप्त करने के पश्चात उसके अंत में ठाकुर रोशन सिंह ने अपना शेर भी लिखा-..जि़ंदगी जिंदा-दिली को जान ऐ रोशन ..वरना कितने ही यहाँ रोज़ फऩा होते हैं..।
फ़ाँसी के फंदे को चूमा, फिर जोर से तीन बार ‘वंदे मातरम का उद्घोष किया। ‘वेद मंत्र का जाप करते हुए वे 19 दिसम्बर, 1927 को फंदे से झूल गए। उस समय वे इतने निर्विकार थे, जैसे कोई योगी सहज भाव से अपनी साधना कर रहा हो। इलाहाबाद में नैनी स्थित मलाका जेल के फाटक पर हजारों की संख्या में स्त्री-पुरुष, युवा और वृद्ध, रोशन सिंह के अंतिम दर्शन करने और उनकी अंत्येष्टि में शामिल होने के लिए खड़े थे। जैसे ही उनका शव जेल कर्मचारी बाहर लाए, वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने नारा लगाया रोशन सिंह अमर रहें। भारी जुलूस की शक्ल में शवयात्रा निकली और गंगा-यमुना के संगम तट पर जाकर रुकी, जहाँ वैदिक रीति से उनका अंतिम संस्कार किया गया।इस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ठाकुर रोशन सिंह की स्व के लिए पूर्णाहुति हुई। अवतरण दिवस पर शत् शत् नमन है 🙏

(लेेखक डॉ आनंद सिंह राणा,…श्रीजानकीरमण महाविद्यालय में प्रोफेसर के साथ इतिहास संकलन समिति महाकोशल प्रांत में भी हैं )

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