चंदेलों की बेटी थी, गोंडवाने की रानी थी, चंडी थी रणचंडी थी, वह तो दुर्गावती भवानी थी। ” वीरांगना रानी दुर्गावती “बलिदान दिवस पर कालजयी चिंतन
■ प्रो. डॉ आनंद सिंह राणा
” स्व के लिए पूर्णाहुति देने वाली विश्व की श्रेष्ठतम वीरांगना रानी दुर्गावती जो “चंदेलों की बेटी थी, गोंडवाने की रानी थी, चंडी थी रणचंडी थी, वह तो दुर्गावती भवानी थी। ”
“मृत्यु तो सभी को आती है अधार सिंह, परंतु इतिहास उन्हें ही याद रखता है जो स्वाभिमान के साथ जिये और मरे” -रानी दुर्गावती(आत्मोत्सर्ग के समय अपने सेनापति से कहा था)
पूर्वपीठिका – भारत के हृदय स्थल में स्थित त्रिपुरी के महान् कलचुरि वंश का 13 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में अवसान हो गया था,फलस्वरूप सीमावर्ती शक्तियां इस क्षेत्र को अपने अधीन करने के लिए लिए लालायित हो रही थीं। अंततः इस संक्रांति काल में एक वीर योद्धा जादोंराय (यदुराय) ने, तिलवाराघाट निवासी एक महान् ब्राह्मण सन्यासी सुरभि पाठक के भगीरथ प्रयास से, त्रिपुरी क्षेत्रांतर्गत, गढ़ा-कटंगा क्षेत्र में गोंड वंश की नींव रखी।(यह उपाख्यान आचार्य चाणक्य और चंद्रगुप्त मौर्य की याद दिलाता है) कालांतर में यह साम्राज्य महान् गोंडवाना साम्राज्य के नाम से जाना गया।गोंडवाना साम्राज्य का चरमोत्कर्ष का प्रारंभ 48वीं पीढ़ी के महानायक राजा संग्रामशाह (अमानदास) के समय हुआ और इनकी पुत्रवधू वीरांगना रानी दुर्गावती का समय गोंडवाना साम्राज्य के स्वर्ण युग के नाम से जाना जाता है।
भारतीय इतिहास का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू रानी दुर्गावती एवं गोंडवाना साम्राज्य के महान् इतिहास को एक छोटी सी कहानी बना डाला और पटाक्षेप कर दिया। रानी दुर्गावती का साम्राज्य लगभग इंग्लैंड के बराबर था।16 वर्ष का शासन काल था, पूरे भारत में एकमात्र राज्य जहाँ कर, सोने के सिक्के एवं हाथियों तक में चुकाया गया था। जिसके शौर्य, पराक्रम, प्रबंधन और देशभक्ति के सामने आस्ट्रिया की मारिया थेरेसा रुस की कैथरीन द्वितीय और इंग्लैंड की एलिजाबेथ प्रथम कहीं नहीं लगतीं।। (केवल जोन आव आर्क को छोड़ दिया जाए वह भी युद्ध कला में).. मध्यकालीन भारत का इतिहास लिखने वाले इतिहासकारों ने रानी दुर्गावती एवं गोंडवाना के इतिहास को गौण स्वरुप प्रदान करते हुए छिन्न – भिन्न रुप में प्रस्तुत कर,छल किया है। इसलिए अब शोधपूर्ण वास्तविक इतिहास लिखा जाना अनिवार्य है ताकि रानी दुर्गावती और गोंडवाना साम्राज्य साम्राज्य के इतिहास के साथ न्याय हो और वर्तमान पीढ़ी और भावी पीढ़ी में गर्व और गौरव की अनुभूति हो तथा राष्ट्रवाद की भावना प्रबल हो।
◆ गोंडवाना साम्राज्य और उसका स्वर्ण युग ….गोंडवाना साम्राज्य का चरमोत्कर्ष 15 वीं शताब्दी के अंत में गोंड वंश के महान् प्रतापी राजा संग्रामशाह के शासन काल में प्रारंभ हुआ।संग्रामशाह का वास्तविक नाम अमानदास था, जिसकी पुष्टि दमोह के पास ठर्रका ग्राम में प्राप्त एक शिलालेख से होती है। रामनगर प्रशस्ति में लिखा है कि “प्रतापी अर्जुन सिंह का पुत्र संग्रामशाह था। जिस भाँति विशाल कपास का ढेर एक छोटी सी चिंगारी से नष्ट हो जाता है, उसी भाँति उसके शत्रु तेजहीन हो गये थे। मध्य काल का सूर्य भी उसके प्रताप के सामने धूमिल सा दिखाई देता था, मानो सारी धरती को जीत लेने का निश्चय किया हो। तदनुसार उसने 52 गढ़ों को जीत लिया था। गोंड़ों में तो कहावत ही प्रचलित हो गई थी कि “आमन बुध बावन में”।ये गढ़ जबलपुर, सागर, दमोह, सिवनी, मंडला, नरसिंहपुर, छिंदवाड़ा, नागपुर, होशंगाबाद, भोपाल, और बिलासपुर तक फैले हुए थे।समकालीन इतिहासकारों की माने तो 70 हजार गांव थे जिनकी संख्या रानी दुर्गावती के समय 80हजार तक हो गई थी।किलों की संख्या 57 परगनों की संख्या 57 हो गई थी। गोंडवाना या गढ़ा-कटंगा विस्तृत और संपन्न राज्य हो गया था, इसके पूर्व में झारखंड, उत्तर में भथा या रीवा का राज्य, दक्षिण में दक्षिणी पठार और पश्चिम में रायसेन प्रदेश था। इसकी लंबाई पूर्व से पश्चिम 300मील तथा चौड़ाई उत्तर से दक्षिण 160 मील थी। इन सीमाओं को रानी दुर्गावती ने और बढ़ा लिया था। गोंडवाना साम्राज्य का क्षेत्रफल लगभग इंग्लैंड के क्षेत्रफल जितना हो गया था। विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों के कारण दिल्ली के सुल्तान या पड़ौस के कोई अन्य राजा गोंडवाना पर अपना प्रभुत्व स्थापित नहीं कर सके।
उत्तर भारत में मुगल शासक हुमायूँ को शेरशाह ने बिलग्राम (कन्नौज) के युद्ध परास्त कर भारत से बाहर खदेड़ दिया और साम्राज्य विस्तार के लिए उद्यत हो गया। शेरशाह की धर्म की आड़ में विस्तारवादी नीति से कालिंजर के महान् शासक कीरत सिंह चिंतित हो गए थे, इसलिए शेरशाह सहित अन्य मुस्लिम आक्राताओं को मुँह तोड़ जवाब देने के लिए गोंडवाना साम्राज्य के महान् राजा संग्रामशाह से मित्रता का प्रस्ताव रखा,जो एक वैवाहिक संबंध के रुप में फलीभूत हुआ।वीरांगना रानी दुर्गावती का जन्म कालिंजर के किले में राजा कीरत सिंह के यहाँ 5 अक्टूबर सन् 1524 को दुर्गाष्टमी के दिन हुआ था, उनकी माता का नाम कमलावती था। राजा संग्रामशाह और उनके सुपुत्र दलपतिशाह , राजा कीरतसिंह की सुपुत्री वीरांगना दुर्गावती के स्त्रियोचित सौंदर्य,शिष्टता, मधुरता और पराक्रम से बहुत प्रभावित थे, इसलिए संग्रामशाह ने कीरतसिंह से उनकी सुपुत्री का अपने पुत्र दलपतिशाह के साथ विवाह का प्रस्ताव रखा, जो स्वीकार्य हुआ।दुर्भाग्य से सन् 1541 में राजा संग्रामशाह का निधन हो गया है बावजूद इसके राजा कीरतसिंह ने अपना वचन निभाया और सन् 1542 अपनी सुपुत्री वीरांगना दुर्गावती का विवाह, राजा दलपतिशाह से कर दिया।यह विवाह सामाजिक समरसता का अद्वितीय उदाहरण है और आलोचकों करारा तमाचा है जो भारतीय संस्कृति में जातिवाद और वर्ण व्यवस्था का दुष्प्रचार करते हैं।
सन् 1545 में शेरशाह ने कालिंजर पर आक्रमण किया और मारा गया इस युद्ध में राजा कीरतसिंह भी शहीद हो गए जिससे वीरांगना दुर्गावती को धक्का लगा परंतु सन् 1548 में पति दलपतिशाह की आकस्मिक मृत्यु ने वीरांगना पर वज्रपात कर दिया। इस वज्रपात से वीरांगना दुर्गावती विचलित हुईं पर शीघ्र ही उन्होंने साहस के साथ अपने 5 वर्षीय अल्पवयस्क सुपुत्र वीर नारायण की ओर से गोंडवाना साम्राज्य की सत्ता संभाल ली। इस तरह गोंडवाना साम्राज्य की वीरांगना रानी दुर्गावती का महान् साम्राज्ञी के रुप में उदय हुआ। रानी दुर्गावती ने 16 वर्ष शासन किया और यही काल गोंडवाना साम्राज्य का स्वर्ण युग था।गोंडवाना साम्राज्य राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक,कला एवं साहित्य के क्षेत्र में सुव्यवस्थित रुप से पल्लवित और पुष्पित होता हुआ अपने चरमोत्कर्ष तक पहुँचा।वर्तमान में प्रचलित जी.एस. टी. जैंसी कर प्रणाली रानी दुर्गावती के शासनकाल में लागू की गई थी, फलस्वरुप तत्कालीन भारत वर्ष गोंडवाना ही एकमात्र राज्य था जहाँ की जनता अपना लगान स्वर्ण मुद्राओं और हाथियों में चुकाते थे। रानी दुर्गावती ने महिलाओं को शिक्षित करने का प्रयास किया और उनके लिए लाख के आभूषणों के लघु उद्योग स्थापित कराए। चिरौंजी, सिंघाड़ा, महुआ एवं इमारती लकड़ी के व्यापार को प्राथमिकता दी । गढ़ा में उन्नत वस्त्र उद्योग था। जड़ी बूटियों से बनी औषधियों के व्यापार को भी बढ़ावा दिया।
गढ़ा उन दिनों उत्तर – मध्य भारत का हिन्दुओं का धार्मिक केंद्र बिंदु था, जहाँ कोई भी हिन्दू अपनी इच्छानुसार धार्मिक अनुष्ठान कर सकता था, श्रीमद् वल्लभाचार्य के पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथ का आगमन देवताल (गढ़ा) में अक्सर होता था, यहीं बैठकजी के मंदिर का निर्माण किया गया जहाँ पर शुद्धाद्वैत नियमों से पूजा होती थी, इसलिए इस स्थान को लघुकाशी वृंदावन कहा जाता था,। इसलिए कहा गया है कि “हरिवंश चरण बल चतुर्भुज, गोंड देश तीरथ किए”।
जल प्रबंधन और पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से वीरांगना रानी दुर्गावती की योजनाएं आज भी उतना ही प्रासंगिक हैं जितनी उस काल में थीं। यूँ तोअपने साम्राज्य में 1000तालाब और 500 बावलियों का निर्माण कराया था परंतु जबलपुर में 52 सरोवर (तालाब) और 40 बावलियों का अद्भुत एवं अद्वितीय प्रबंधन किया गया था,। सरोवर 3 प्रकार के होते थे – प्रथम – शिखर सरोवर (पहाड़ी सरोवर थे जो वनस्पतियों और वन्य जीवों की रक्षा के लिए थे.. द्वितीय – तराई सरोवर – पहाड़ियों की तराई में जल संग्रहण हेतु बनाये गये थे.. तृतीय – नगरीय सरोवर थे। तीनों प्रकार के सरोवर भूमिगत नहरों द्वारा एक दूसरे से जुड़े हुए थे, इस योजना को पंचासर योजना के नाम से जाना जाता है। जल संवर्धन के लिए वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग किया गया और भूजल विशेषज्ञ कीकर सिंह पानीकार का नाम उल्लेखनीय है। उपरोक्तानुसार स्वर्ण युग के लिए आवश्यक सभी प्रतिमानों के आलोक में सिंहावलोकन करने पर यही प्रमाणित होता है कि यह काल गोंडवाना साम्राज्य का स्वर्ण युग था।
- ◆ वीरांगना रानी दुर्गावती का सैन्य संगठन एवं युद्ध नीति — रानी दुर्गावती की युद्ध नीति और कूटनीति विलक्षण थी, जिसकी तुलना काकतीय वंश की वीरांगना रुद्रमा देवी और फ्रांस की जान आफ आर्क को छोड़कर विश्व की अन्य किसी वीरांगना से नहीं की जा सकती है।युद्ध के 9 पारंपरिक युद्ध व्यूहों क्रमशः वज्र व्यूह, क्रौंच व्यूह, अर्धचन्द्र व्यूह, मंडल व्यूह, चक्रशकट व्यूह, मगर व्यूह, औरमी व्यूह, गरुड़ व्यूह, और श्रीन्गातका व्यूह से परिचित थीं। इनमें क्रौंच व्यूह और अर्द्धचंद्र व्यूह में सिद्धहस्त थीं। क्रौंच व्यूह रचना का प्रयोग ,जब सेना ज्यादा होती थी, तब किया जाता था जिसमें क्रौंच पक्षी के आकार के व्यूह में पंखों में सेना और चोंच पर वीरांगना होती थीं और शेष अंगों पर प्रमुख सेनानायक होते थे। वहीं दूसरी ओर जब सेना छोटी हो और दुश्मन की सेना बड़ी हो तब इस व्यूह रचना का प्रयोग किया जाता था, जिससे सेना एक साथ ज्यादा से ज्यादा जगह से दुश्मन पर मार सके।वीरांगना की रणनीति अकस्मात् आक्रमण करने की होती थी। रानी दुर्गावती दोनों हाथों से तीर और तलवार चलाने में निपुण थीं। गोंडवाना साम्राज्य की सत्ता संभालने के कुछ दिन बाद ही गढ़ों की संख्या 52 से बढ़कर 57 हो गई थी। वीरांगना ने एक बड़ी स्थायी और सुसज्जित सेना तैयार की, जिसमें 20 हजार अश्वारोही एक सहस्र हाथी और प्रचुर संख्या में पदाति थे। तत्कालीन भारत में गोंडवाना साम्राज्य प्रथम साम्राज्य था, जहां महिला सेना का भी दस्ता था और रानी दुर्गावती की बहिन कमलावती और पुरागढ़ की राजकुमारी कमान संभालती थीं।
वीरांगना रानी दुर्गावती के शौर्य, साहस एवं पराक्रम के संबंध में प्रकाश डालते हुए तथाकथित छल समूह के इतिहासकारों ने कुल 4 युद्धों का टूटा-फूटा वर्णन कर इति श्री कर ली है, जबकि वीरांगना ने 16 युद्ध (छुटपुट युद्धों को छोड़कर) लड़े। 16 युद्धों में से 15 युद्धों विजयी रहीं, जिसमें 12 युद्ध मुस्लिम शासकों से लड़े गये, उसमें से भी 6 मुगलों के विरुद्ध लड़े गये। पिता राजा कीरतसिंह के साथ मिलकर, हनुमान द्वार का युद्ध, गणेश द्वार का युद्ध, लाल दरवाजा का युद्ध.. बुद्ध भद्र दरवाजा का युद्ध (कालिंजर का किला अब कामता द्वार,पन्ना द्वार, रीवा द्वार हैं)लड़े गये जिसमें विजयश्री प्राप्त की।
गोंडवाना की साम्राज्ञी के रुप में सत्ता संभालते ही मांडू के अय्याश शासक बाजबहादुर ने विधवा महिला जानकर गोंडवाना साम्राज्य दो बार आक्रमण किए परंतु रानी दुर्गावती ने दोनों बार जम कर दुर्गति कर डाली और मांडू राजधानी तक खदेड़ा। बाजबहादुर जीवन भर शरणागत रहा। आगे मालवा के सूबेदार शुजात की कभी हिम्मत नहीं हुई। शेरखान (शेरशाह) कालिंजर अभियान में मारा गया। कुछ दिनों बाद मुगलों ने पानीपत के द्वितीय युद्ध के उपरांत पुनः सत्ता हथिया ली और अकबर शासक बना। शीघ्र ही येन केन प्रकारेण साम्राज्य विस्तार करना आरंभ कर दिया।
रानी दुर्गावती के गोंडवाना साम्राज्य की संपन्नता और समृद्धि की चर्चा कड़ा और मानिकपुर के सूबेदार आसफ खान द्वारा मुगल दरबार में की गई । धूर्त, लंपट और चालाक अकबर लूट और विधवा रानी को कमजोर समझते हुए जबरदस्ती गोंडवाना साम्राज्य हथियाने के उद्देश्य से रानी को आत्मसमर्पण के लिए धमकाया परंतु गोंडवाना की स्वाभिमानी और स्वतंत्रप्रिय वीरांगना रानी दुर्गावती नहीं मानी। अकबर का संदेश था कि स्त्रियों का काम रहंटा कातने का है, तो रानी ने संदेश के साथ एक सोने का पींजन भेजा और कहा कि आपका भी काम रुई धुनकने का है। अकबर तिलमिला गया और उसने आसफ खान को गोंडवाना साम्राज्य की लूट और उसके विनाश के लिए रवाना किया। इसके पूर्व अकबर ने दो गुप्तचरों क्रमशः गोप महापात्र और नरहरि महापात्र को भेजा परंतु वीरांगना ने दोनों को अपनी ओर मिला लिया। उन्होंने अकबर की योजना और आसफ खाँ के आक्रमण के बारे में रानी दुर्गावती को सब कुछ बता दिया।
वीरांगना रानी दुर्गावती सतर्क हो गईं और सिंगौरगढ़ में मोर्चा बंदी कर ली। आसफ खान 6 हजार घुड़सवार सेना 12 हजार पैदल सेना एवं तोपखाने तथा स्थानीय मुगल सरदारों के साथ सिंगोरगढ़ आ धमका। इधर रानी दुर्गावती के साथ, उनके पुत्र वीर नारायण सिंह, अधार सिंह, हाथी सेना के सेनापति अर्जुन सिंह बैस, कुंवर कल्याण सिंह बघेला, चक्रमाण कलचुरि, महारुख ब्राह्मण, वीर शम्स मियानी, मुबारक बिलूच,खान जहान डकीत, महिला दस्ता की कमान रानी दुर्गावती की बहन कमलावती और पुरा गढ़ की राजकुमारी (वीर नारायण की होने वाली पत्नी) संभाली। अविलंब युद्ध आरंभ हो गया। सिंगोरगढ़ का प्रथम युद्ध – आसफ खान ने आत्मसमर्पण के लिए कहा, वीरांगना ने कहा कि किसी शासक के नौकर से इस संदर्भ में बात नहीं की जाती है। वीरांगना ने भयंकरआक्रमण किया, मुगलों के पैर उखड़ गये आसफ खान भाग निकला। सिंगौरगढ़ का द्वितीय युद्ध – पुन: मुगलों के वही हाल हुए लेकिन मुगलों का तोपखाना पहुंच गया और रानी को खबर लग गयी उन्होंने गढ़ा में मोर्चा जमाया और सिंगोरगढ़ छोड़ दिया। सिंगौरगढ़ का तृतीय युद्ध – मुगलों का तोपखाना भारी पड़ गया और सिंगोरगढ़ हाथ से निकल गया। चंडाल भाटा (अघोरी बब्बा) का युद्ध – यह चौथा युद्ध था जिसका उद्देश्य मुगल सेना को पीछे हटाना था ताकि वीरांगना गढ़ा से बरेला के जंगलों की ओर निकल जाए। घमासान युद्ध हुआ और सेनानायक अर्जुन सिंह बैस ने आसफ खाँ को बहुत पीछे तक खदेड़ दिया। वीरांगना ने तोपखाने से निपटने के लिए एक शानदार रणनीति बनायी जिसके अनुसार बरेला (नर्रई) के सकरे और घने जंगलों के मध्य मोर्चा जमाया ताकि तोपों की सीधी मार से बचा जा सके।
गौर नदी का युद्ध – वीरांगना रानी दुर्गावती के जीवन के 15वें और मुगलों से 5वें युद्ध में 22 जून 1564 को स्वतंत्रता,स्वाभिमान और शौर्य की देवी – विश्व की श्रेष्ठतम वीरांगना रानी दुर्गावती ने,प्रात:सेनानायक अर्जुन सिंह बैस के शहीद होने का समाचार मिलते ही “अर्द्धचंद्र व्यूह”बनाते हुए “गौर नदी के युद्ध” में आसफ खाँ सहित मुगलों की सेना पर भयंकर आक्रमण किया और पुल तोड़ दिया ताकि तोपखाना नर्रई (बरेला) न पहुँच सके। मुगल सेना तितर बितर हो गई जिसको जहां रास्ता मिला भाग निकला..वीरांगना ने पुन:रात्रि में हमले की योजना बनाई परंतु सरदारों की असहमति के कारण निर्णय बदलना पड़ा.. यहीं भारी चूक हो गई, यदि रात्रि में आक्रमण होता तो इतिहास कुछ और ही होता.. अंततः वीरांगना ने नर्रई की ओर कूच किया और युद्ध के लिए “क्रौंच व्यूह” रचना तैयार की.।23 जून 1564 को नर्रई में प्रथम मुठभेड़ हुई, रानी और उनके सहयोगियों ने मुगलों की की दुर्गति कर डाली । मुगल भाग निकली और डरकर बरेला तक भागी। 23 जून की रात तक तोपखाना गौर नदी पार कर बरेला पहुंच गया। 23 जून की रात को घातक षड्यंत्र हुआ। .आसफ खान ने रानी के एक छोटे सामंत बदन सिंह को घूस देकर मिला लिया.. उसने रानी की रणनीति का खुलासा कर दिया कि कल युद्ध में रानी मुगलों को घने जंगलों की ओर खींचेगी जहाँ तोपखाना कारगर नहीं होगा और सब मारे जाएंगे। आसफ खान डर गया उसने उपचार पूंछा.. तब बदन सिंह ने बताया कि नर्रई नाला सूखा पड़ा है और उसके पास पहाड़ी सरोवर है जिसे यदि तोड़ दिया जाए तो पानी भर जाएगा और रानी नाला पार नहीं कर पाएगी और तोपों की मार सीधा पड़ेगी.।उधर रात में रानी को अनहोनी अंदेशा हुआ.. उन्होंने सरदारों से रात में ही हमले का प्रस्ताव रखा पर सरदार नहीं माने.. यदि मान जाते तो इतिहास कुछ और होता.।बहरहाल युद्ध अंतिम घड़ी आ ही गयी.. वीरांगना ने “क्रौंच व्यूह” रचा.. सारस पक्षी के समान सेना जमाई गई.. चोंच भाग पर रानी दुर्गावती स्वयं और दाहिने पंख पर युवराज वीरनारायण और बायें पंख पर अधारसिंह खड़े हुए.. 24 जून 1564 को प्रातः लगभग 10 बजे मोर्चा खुल गया.. घमासान युद्ध प्रारंभ हुआ.. पहले हल्ले में मुगलों के पांव उखड़ गए.. मुगलों ने 3 बार आक्रमण किये और तीनों बार गोंडों ने जमकर खदेड़ा… इसलिए मुगलों ने तोपखाना से मोर्चा खोल दिया.. रानी ने योजना अनुसार जंगलों की ओर बढ़ना शुरू किया परंतु बदन सिंह की योजना अनुसार पहाड़ी सरोवर तोड़ दिया गया.. नर्रई में बाढ़ जैसी स्थिति बन गयी.. अब रानी घिर गयी.. इसी बीच अपरान्ह लगभग 3 बजे वीरनारायण के घायल होने की खबर आई.. वीरांगना जरा भी विचलित नहीं हुई.. आंख में तीर लगने के बाद भी युद्ध जारी रखा, .. मुगल सेना के बुरे हाल थे परंतु रानी को एक तीर गर्दन पर लगा रानी ने तीर तोड़ दिया.. हाथी सरमन के महावत को अधार सिंह पीछे हटने का आदेश दिया परंतु रानी समझ गयी थी कि अब वो नहीं बचेंगी.. इसलिए अब वो युद्ध के गोल में समा गयीं और भीषण युद्ध किया जब उनको मूर्छा आने लगी तो उन्होंने अपनी कटार से प्राणोत्सर्ग किया.. वहीं सेनापति आधार सिंह के नेतृत्व में कल्याण सिंह बघेला और चक्रमाण कलचुरी ने युद्ध जारी रखा और वीरांगना के पवित्र शरीर को सुरक्षित किया तथा युवराज वीर नारायण सिंह को रणभूमि से सुरक्षित भेज कर अपनी पूर्णाहुति दी। 🙏 🙏 🙏 🙏 💐 वीरांगना रानी दुर्गावती के बारे में कविवर नर्मदा प्रसाद खरे ने ठीक ही लिखा है कि “आसफ खां से लड़कर तूने, अमर बनाया कोसल देश.. अमर रहेगी रानी तू भी, अमर रहे तेरा संदेश”
( लेखक: डॉ आनंद सिंह राणा , विभागाध्यक्ष इतिहास विभाग श्री जानकी रमण महाविद्यालय जबलपुर, उपाध्यक्ष, इतिहास संकलन समिति महाकोशल प्रांत एवं देश के जाने माने प्रसिद्ध इतिहासकार हैं )